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भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी - डॉ. कंचन पुरी रीडर, हिन्दी विभाग(आर.जी.कॉलिज मेरठ)

>> Thursday, May 6, 2010

         

आज भूमंडलीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था का युग है। सूचना प्रौद्योगिकी और तकनीकी क्रान्ति के माध्यम से वर्तमान पूंजीवाद विश्व-बाजार या भूमंडलीय बाजार की अवस्था में पहुंच गया है। तकनीकी क्रान्ति ने पूंजी-निर्माण की गति को तेज किया है। यह पूंजी सम्पूर्ण संसार को एक बड़े बाजार में परिवर्तित कर देती है। अस्सी के दशक में भूमंडलीकरण और उदारीकरण की पदचाप सुनाई देने लगी थी। बहुराष्ट्रीय निगमों का आगमन होने लगा था। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों, विशेषकर टेलीविजन ने अपनी विराट और निर्णायक उपस्थिति दर्ज की। सेटेलाइट युग में प्रवेश करने के साथ ही भारत भूमंडलीकरण की चपेट में आया और सम्पूर्ण भूमण्डल में तेजी से सूचनाओं का आदान-प्रदान प्रारम्भ हुआ। यहां तक कम्प्यूटर और इंटरनेट ने सूचना-जगत्‌ में घमासान ही मचा दिया। भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया के साथ हिन्दी भाषा का स्वरूप व प्रवृत्ति भी बदली। भूमंडलीकरण को आरम्भ हुए डेढ़ दशक हुआ है, इस काल में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आशातीत और विस्मयकारी वृद्धि आयी है। सूचना प्रौद्योगिकी ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में उल्लेखनीय भूमिका निभायी है। इसके बिना ग्लोबल हिन्दी की कल्पना ही नहीं की जा सकती। आज हिन्दी का भूमंडलीकरण हो गया है और वह अपनी प्रबल उपस्थिति सिद्ध कर रही है। अंग्रजों ने अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पूरे विश्व पर अपना एकछत्रा आधिपत्य कायम किया था और हिन्दी को उसके ही देश में खदेड़ कर पददलित कर दिया था। आज वही हिन्दी अंग्रेजी की आंखों में आंखे डाल बड़े-बड़े बहुराष्ट्रीय निगम हिन्दी के चरण-रज प्राप्त कर कह रहे हों कि कई बार इतिहास इतना क्रूर व निर्मम हो ही जाता है। 
देश व वहां के निवासियों को समझने के लिए भाषा व संस्कृति में रुचि बढ़ती है। भारत चिरकाल से कला, विज्ञान व संस्कृति व अनेक क्षेत्राों में सम्पन्न होने के कारण विदेशियों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है। विगत पांच दशकों में भारत के प्रति विदेशियों की रुचि में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है और भारतीय भाषाओं व साहित्य में भी उनकी रुचि अत्यधिक बढ़ी है। एक सर्वेक्षण के अनुसार हिन्दी संसार की तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। सबसे अधिक बोली व व्यवहार में आने वाली भाषा चीनी है, दूसरे स्थान पर अंग्रेजी और तीसरे स्थान पर हिन्दी है। 
हिन्दी भारत की प्रधान भाषा है। इसे मातृभाषा के रूप में प्रयोग करने वाले भारतीयों का प्रतिशत 45 है। द्वितीय भाषा व संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग करने वाले भारतीयों की संख्या भी इसमें जोड़ दी जाए तो यह प्रतिशत बहुत बढ़ जाता है। भारत के पूर्व में रहने वाला, पश्चिम में बसे भारतीय से सम्पर्क मात्रा हिन्दी के माध्यम से ही कर सकता है। यह शक्ति, सम्पर्क भाषा कही जाने वाली अंग्रेजी में भी नहीं है। अंग्रेजी देश की जनसंख्या की एक प्रतिशत से भी कम लोगों की मातृभाषा है। विगत डेढ़ दशक में हिन्दी भाषा के भूगोल और स्वरूप में जो परिवर्तन हुए हैं, वह हिन्दी भाषा और भूमंडलीकरण के सशक्त पारस्परिक सम्बन्ध को व्यक्त करता है। 
आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी हिन्दी के महत्व को समझते हुए निज विज्ञापन में हिन्दी का प्रयोग करने लगी हैं, यहां तक नियुक्ति के लिए हिन्दी तथा किसी एक अन्य भारतीय भाषा का ज्ञान अंग्रेजी की तुलना में अत्यावश्यक मानती हैं। आज देश में किसी भी भाषा का साहित्यकार निज रचना को हिन्दी भाषा में प्रकाशित देखना चाहता है, हिन्दी में लिखना चाहता है या निज रचना का अनुवाद हिन्दी भाषा में कराना चाहता है। इसके पार्श्व में हिन्दी प्रेम नहीं, हिन्दी की व्यावहारिक उपयोगिता है। हिन्दी ही उसे देशव्यापी और अधिक पाठक वर्ग दे सकती है।
हिन्दी बिना किसी संकोच के धड़ल्ले से अंग्रेजी भाषा के शब्दों को आत्मसात्‌ कर रही है। हिन्दी व अंग्रेजी का सम्बन्ध अब सह-अस्तित्व का है। हिन्दी का भविष्य अब संगोष्ठियों, विश्वविद्यालय और अकादमियों में तय नहीं हो रहा है, अपितु अब खुले बाजार में मुक्त स्पर्धा से तय हो रहा है। हिन्दी ने यह सिद्ध कर दिया है कि उपभोक्तावाद, बाजारवाद और उदारीकरण की व्यवस्था के अनुरूप अपने आप को ढालने की उसकी क्षमता विलक्षण है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपना माल और उत्पाद तो हिन्दी-क्षेत्रा में ही विक्रय कर चाहती है, क्योंकि उसे पता है कि यह उतना बड़ा बाजार है जो यूरोप, अमरीका और फ्रांस को मिलाकर भी नहीं बनता। हिन्दी भाषियों का क्षेत्रा 50-60 करोड़ जनता का है। देश की राजनीतिक व सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र यही है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने हिन्दी भाषा को राजनीतिक और सांस्कृतिक संवाद तक सीमित न करके उसे बाजार की उपभोक्ता संस्कृति की नई भाषा के अनुरूप ढाल दिया। सभी उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापन में हिन्दी को महत्व दिया जाता है क्योंकि हिन्दी का विज्ञापन अधिक लोगों तक पहुंचता है। स्पष्ट है कि भूमंडलीकृत सूचना तन्त्रों, उपभोक्तावाद, बाजारवाद आदि ने हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप व भूमंडलीय पहचान प्रदान की है। हिन्दी के विकास और संवर्धन में इलेक्ट्रानिक मीडिया, टी वी चैनलों आदि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। जो कार्य हिन्दी फिल्में छह दशक में भी नहीं कर सकीं वह कार्य टेलीविजन ने एक दशक में कर दिखाया। घरों में, दुकानों पर, ढाबों, चाय की दुकानों पर, पनवाड़ी के खोखे और झुग्गी-झोपडियों में प्रत्येक ओर टेलीविजन विराजमान हो गया। टेलीविजन एक ही समय में एक जैसी सूचना को सार्वजनिक और भूमंडलीय बनाने की क्षमता रखता है और उसने इसी विशेषता के कारण विश्व को भूमंडलीय-ग्राम में बदलकर रख दिया है। भूमंडलीय हिन्दी परिनिष्ठित, परिमार्जित और शुद्ध हिन्दी नहीं है, उसमें बहुत कुछ अंग्रेजी मिली हुई है। एक नई हिन्दी का सृजन हो रहा है। हिन्दी भाषी बाजार की यह स्पर्धात्मकता उसे भूमंडलीय व्यवहार और विचार की भाषा बना रही है।    
हिन्दी फिल्म की लोकप्रियता से कौन अपरिचित है। समस्त भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों के यदि वार्षिक आंकड़े देखें जाएं तो सभी भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की कुल संख्या(हिन्दी को छोड़कर) हिन्दी फिल्मों की तुलना में नगण्य ही होती है। अन्य भाषाओं के कलाकार हिन्दी फिल्मों में इसीलिए आना चाहते हैं जिससे उन्हें बड़ा दर्शक वर्ग मिल सके।
पत्राकारिता के क्षेत्रा में भी हिन्दी में प्रकाशित दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाओं की संख्या अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में बहुत अधिक है। इसी व्यापकता के कारण ही आज हिन्दी को देश की प्रधान भाषा विश्व में माना जा रहा है और विदेशी विद्वान विविध कारणों से हिन्दी का अध्ययन कर रहे हैं।
भारत के बाहर फीजी, मारिशस, सूरिनाम, त्रिानिदाद व दक्षिण अफ्रीका में बसे लाखों प्रवासी भारतीय विगत 150वर्षों से मातृभाषा के रूप में हिन्दी का व्यवहार करते हैं। ये प्रवासी भारतीय मूलतः पश्चिमी बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश से इन देशों में पहुंचे थे। इनकी भाषा भोजपुरी व अवधी थी, इसलिए इनके मध्य सम्पर्क का माध्यम ये ही भाषाएं बनीं। कालान्तर में यही हिन्दी इनकी अस्मिता का प्रतीक बन गईं। ये प्रवासी भारतीय हिन्दी का व्यवहार करते हैं, उसका सम्मान करते हैं और हिन्दी का प्रचार-प्रसार चाहते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि हिन्दी समस्त भारतीयों को एक दूसरे से जोड़े रखने में महत्वपूर्ण सांस्कृतिक माध्यम है। हिन्दी इन देशों में मात्रा भारतीयों के मध्य ही नहीं, अपितु यहां के मूल निवासियों के मध्य भी अच्छी तरह समझी व बोली जाती है। फीजी में तो हिन्दी को तो संवैधानिक संसदीय मान्यता प्राप्त है।
भारत के पड़ोसी देशों में पाकिस्तान, नेपाल, बंगलादेश व वर्मा में हिन्दी भाषा बोलने व समझने वालों की संख्या पर्याप्त है। पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू तो भाषाविज्ञान की दृष्टि से खड़ी बोली प्रधान शैली है। नेपाल में हिन्दी पूरे देश के 53प्रतिशत नेपालियों की मातृभाषा है। इनके अतिरिक्त भारतीय मूल के लोग अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया या अफ्रीका चाहे कहीं भी बसे हों हिन्दी बोलते और समझते हैं। मूलतः हिन्दी विदेशों में बसे भारतीयों के मध्य सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयोग की जाती है। प्रवासी भारतीयों की पहली व दूसरी पीढ़ी में हिन्दी मातृभाषा एवं तीसरी व चौथी पीढ़ी के बाद दूसरी भाषा बन जाती है। प्रवासी भारतीय हिन्दी को उन देशों में भी सुरक्षित रखने के लिए प्रयासरत हैं। यहां भारतीय विद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है, हिन्दी पत्रा-पत्रिाकाओं का प्रकाशन होता है, रेडियो पर दीर्घ अवधि के हिन्दी प्रसारण होते हैं और इतना ही नहीं हिन्दी में मौलिक साहित्य का सृजन भी करते हैं। 
भाषा की सामाजिक प्रतिष्ठा उसके बोलने वालों की सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ी होती है। प्रवासी भारतीयों का बड़ा दल सर्वप्रथम मारिशस में 1834ई. में गया था, फिर 1845ई. में त्रिानिनाद, 1860ई. में दक्षिण अफ्रीका, 1870ई. में गुयाना, 1873ई. में सूरिनाम एवं 1879ई. में फीजी गया था। यहां जाने वाले भारतीय अवधी, भोजपुरी व कुछ खड़ी बोली का प्रयोग करते थे। धीरे-धीरे इनकी यह भाषा एक नए रूप में नई शैली में विकसित हो गई। इनके अनेक नाम रखे गए, जैसे सूरिनाम की हिन्दी को सरनामी हिन्दी या सरनामी कहा जाता है। दक्षिण अफ्रीका में इसे नैताली कहा जाता है। इनका प्रयोग प्रवासी भारतीय घर में तथा औपचारिक बातचीत में करते हैं। प्रवासी भारतीयों के निकट आने के लिए विदेशी विद्वानों ने हिन्दी की शैलियों पर विभिन्न दृष्टियों से कार्य किया और इनका व्याकरण बनाया, हिन्दी-अंग्रेजी द्विभाषी कोश तैयार किए।  रोडने मोग का फीजी हिन्दी का व्याकरण, सूजा हील्स का फीजी हिंदी-अंग्रेजी-फीजी हिन्दी कोश इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास हैं। हिन्दी भाषा के अध्ययन और व्याकरण लेखन की परम्परा विदेश में सत्राहवीं शती के अंतिम दशक में प्रारम्भ हो गई थी। हिन्दी भाषा का पहला व्याकरण जान जोशुआ केरलियर का लिखा हुआ है जिसका सर्वप्रथम उल्लेख बी. शुल्तज ने अपने ग्रन्थ ÷ग्रामातिका हिंदोस्तानिका' में किया है। यह पुस्तक डच में थी तथा 1695ई. के आसपास लिखी गई थी। विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों में विदेशी शोधार्थियों द्वारा अनेक शोध हो रहे हैं जोकि हिन्दी के भाषा तथा साहित्य दोनों पक्षों पर हो रहे हैं। 
वर्तमान में हिन्दी भाषा का अध्ययन और अध्यापन विश्व के लगभग सभी प्रमुख देशों में हो रहा है, कहीं यह अध्ययन प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर पर हो रहा है तो कहीं विश्वविद्यालय स्तर पर। कहीं यह निज मातृभूमि भारत से जुड़े रहने का भावात्मक माध्यम समझा जाता है तो कहीं इसके अध्ययन का उद्देश्य आधुनिक भारत के अंतर्तम को समझना है। विदेशों में हिन्दी शिक्षण निजी प्रयासों द्वारा, तो कहीं धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं द्वारा, तो कहीं सरकारी स्तर पर विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में संचालित हो रहा है। अमरीका की डॉ. शोमर के अनुसार यहां 113 विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में हिन्दी अध्ययन की सुविधाएं उपलब्ध हैं जिनमें 13 शोध स्तर के केन्द्र हैं। आंकड़ों के अनुसार विश्व के 143 विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षण की विभिन्न स्तरों पर व्यवस्था है। 
फीजी  के कमला प्रसाद मिश्र, मारिशस के अभिमन्यु अनन्त, सोमदत्त बरचौरी, सूरिनाम के मुंशी रहमान खान, सूर्य प्रसाद वीरे के साहित्यिक अवदान को कौन भुला सकता है। अंग्रेज कवि चैम्बर लेन ने हिन्दी में अनेक गीत लिखे, जे.टी.थामसन ने ख्रीष्ट चरितामत दोहा चौपाई में लिखा, जूलियस फ्रेडरिक उलभन ने हिन्दी में ÷वह श्रेष्ठ मूलक था' लिखा तो ओदोलेन, स्मेकल के ÷मेरी प्रीत तेरे गीत' आदि कितने ही ग्रन्थ हिन्दी में प्रकाशित हुए।
निज भाषा में अभिव्यक्ति व उसके व्यापक प्रचार-प्रसार की इच्छा ने विदेशी हिन्दी प्रेमियों को पत्रकारिता की ओर तत्पर किया। आज विदेशों में कई हिन्दी पत्रा निकल रहे हैं जो बड़ी संख्या में छपते हैं जिनमें प्रवासी भारतीय लेख, कविता तथा कहानियां आदि लिखते हैं। फीजी टाइम्स द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक शांतिदूत एक ऐसा पत्र है जो विगत 70वर्ष से निकल रहा है। 
विदेशों में भारत के प्रति विद्वानों की बढ़ती रुचि ने विदेशियों को भारतीय साहित्य और विशेषकर हिन्दी साहित्य के अनुवाद की ओर प्रेरित किया। हिन्दी साहित्य का विश्व की अनेक भाषाओं में निरन्तर अनुवाद हो रहा है। प्रेमचंद के गोदान का विश्व की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ। तुलसी कृत रामचरितमानस के अनुवाद तो बाइबिल के बाद विश्व की विविध भाषाओं में सर्वाधिक हुए।
विश्व स्तर पर हिन्दी आज विश्व की एक प्रतिष्ठित भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है और अपने संख्या बल के आधार पर विश्व की दूसरी प्रमुख भाषा है, विश्व के किसी भी देश में बसे हुए प्रवासी भारतीय हिन्दी को अपनी अस्मिता से जुड़ा हुआ मानते हैं। हिन्दी अध्ययन-अध्यापन की एक परम्परा विदेश में रही है, हिन्दी पत्राकारिता का विदेशों में निरन्तर विकास हो रहा है, हिन्दी साहित्य के अध्ययन व अनुवाद के प्रति भी विदेशियों की रुचि बढ़ी है। समस्त प्रिंट मीडिया इन्टरनेट पर उपलब्ध है। हिन्दी आज भारत की ही नहीं विश्व भाषा का रूप ले चुकी है। सूचना-उद्योग हिन्दी का नए और सृजनात्मक ढंग से प्रभावशाली उपयोग कर रहा है जिसमें विकास की अनन्त संभावनाएं विद्यमान हैं। साहित्य, ज्योतिष, स्वास्थ्य, खेल, मनोरंजन, व्यंजन, योग, धर्म, अध्यात्म, फैशन आदि विविध विषय हिन्दी की बेबसाइटों पर सहज और सदैव सुलभ हैं। इस सारे परिदृश्य में हिन्दी का न केवल भूमंडलीय प्रसार हुआ है अपितु हिन्दी का डंका सम्पूर्ण भूमंडल में बजने और गूंजने लगा है। वस्तुतः भूमंडलीकरण का वर्तमान समय हिन्दी के लिए अनन्त सृजनशील सम्भावनाओं से युक्त है। 




   
    

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